उत्तराखंड की प्रमुख पारंपरिक आभूषण और पहनावा और संस्कृति जिस तरह से आगे बढ़ रहे हैं एक नई दिशा की ओर जा रहे हैं हम अपनी संस्कृति को धीरे-धीरे भूल रहे हैं अपने पहाड़ी संस्कृति को यहां के पहनावे को यह सब भूल रहे हैं कहीं नहीं कहीं दोस्तों आज उत्तराखंड में की संस्कृति बहुत आगे पहुंच चुकी है यहां के लोग कलाकार ,यहां के गायक ,यहां के पहनावे, यहां के वाद्य यंत्र कहीं न कहीं आज बहुत आगे हैं पर लेकिन दोस्तों कहीं न कहीं हम आज भी पीछे हैं हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं. बहुत कम लोग अपनी भाषा का प्रयोग करते होंगे. मेरा आपसे अनुरोध है अपने बच्चों को अपने दोस्तों को पहाड़ी भाषा जरूर सिखाएं और यहां के प्राचीन इतिहास और यहां के व्यंजनों और यहां के लोग कलाकार और यहां के प्राचीन धरोहरों को जरूर बताएं और यहां के आभूषण और संस्कृति को भी जरूर बताएं .ताकि उन्हें पता लगे कि हम ऐसे राज्य में रहते हैं जहां एक ऐसी प्राचीन संस्कृति भी है .और यह बहुत अच्छा है दोस्तों कि इसी प्रकार हमारी जो संस्कृति है वह कायम रहे.
उत्तराखंड के परंपरागत पोशाक – Uttarakhand Tradtional Dress
परम्परागत पोशाक
महिलायों की पोशाक घाघरा व पूरे बाँह का अंगरखा पहनती है। नए अवसरों पर पिछौडा पहना जाता है। पुरुष का पहनावा पाजामा, लम्बा कोट व ऊनी टोपी पहनते है। महिलायें लहंगा तथा घाघरा तथा पूरे बाँह का अंगरखा पहनती है। विशेष अवसरों पर परम्परागत रंगवाली पिछौडा पहना जाता है। एक सजावटी किनारे वाला रंग विरंगा पिछौडा होता है जो सिर पर ओढा जाता है। पुरुष लम्बे कोट (अचकन) के साथ पाजामा पहनते है। साथ में ऊनी टोपी भी पहनी जाती है।

रंगवाली का पिछौड़ा
समूचे कुमाऊँ में शुभ अवसरों पर महिलायें तेज पीले रंग पर गहरे लाल रंग से बनी ओढ़नी पहने देखी जा सकती हैं। इसे रंगौली का पिछौड़ा या रंगवाली का पिछौड़ा कहते हैं। शादी, नामकरण, व्रत त्यौहार, पूजन अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बन्धन के इसका प्रयोग होता है। यद्दपि यह वस्र बाजार में बना बनाया सुगमतासे उपलब्ध है तो भी घरों में परम्परागत रुप से इसको बनाने का प्रचलन है।
रंगौली का पिछौड़ा बनाने के लिए वायल या चिकन का कपड़ा काम में लाया जाता है। पौने तीन अथवा तीन माटर लम्बा, सवा मीटर तक चौड़ा सफैद कपड़ा लेकर उसे गहर पिले रंग में रंग लिया जाता है। आजकल यद्यपि रंगाई के लिए सिन्थेटिक रंगों का प्रचलन है तथापि परम्परागत रुप से जब इसकी रंगाई की जाती थी तब किलमौड़े के जड़ को पीसकर अथवा हल्दी से रंग तैयार किया जाता था। रंगने के बाद इस वस्र को छाया में सुखा लिया जाता है।लाल रंग बनाने के लिए महिलायें कच्ची हल्दी में नींबू निचोड़कर, सुहागा डालकर ताँबे के बर्तन में रात के अंधेरे में रख देती हैं। सुबह इस सामग्री को नींबू के रस में पका लिया जाता है।रंगाकन के लिये कपड़े के बीच में केन्द्र स्थापित कर खोरिया अथवा स्वास्तिक बनाया जाता है। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि खोरिया एक दम बीचोंबीच हो, नहीं तो समूचा रंगाकन खराब हो सकता है। इसको चारों कोनों पर सूर्य, चन्द्रमा, शंख, घट आदि से अलंकृत किया जाता है, कुछ महिलायें सिक्के पर कपड़ा लपेटकर केन्द्रीय वृत का निमार्ंण करती हैं। रंगाकन ठप्पे की सहायता से पूरा होता है।
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Uttarakhand bahut hi hot BF Khubsurat the dhanyvad
ji bilkul aana jarur